संदेश

2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

📔 बी.ए.भाग १ - मोचीराम

चित्र
  मोचीराम                                                                             (कवि - सुदामा प्रसाद पाण्डेय -   धूमिल) प्रश्न : मोचीराम कविता में किसका वर्णन है ?             मोचीराम   के माध्यम से कवि उस बनिए की हरकत और बेशर्मी का यथार्थ   वर्णन   करता है। कवि ने   मोचीराम   केे दुख को व्यक्त किया है क्योंकि बनिया उसको उसकी मेहनत के पूरे पैसे नहीं देता है , और उसकी अभद्र भाषा भी सुनता है   मोचीराम   दुखी है। कवि का मानना है की पेशा एक व्यक्ति का बोध कराता है , जबकि भाषा पर किसी भी जाति का हक है।              चेहरे से वह आदमी को नहीं पहचानता , जूतों से पहचानता है , और उसके लिए आदमी की पहचान बहुत स्पष्ट है - एक जोड़ी जूता , और जूता भी वह है जो उसके पास मरम्मत के लिए आता है। ' बाबूजी सच कहूँ - मेरी निगाह में / न कोई छोटा है / न कोई बड़ा है / मेरे लिए , हर आदमी एक जोड़ी जूता है / जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।                   प्रस्तुत कविता साठोत्तरी कवि धूमिल द्वारा रचित उनकी कविता मोचीराम से अवतरित हैं। इसमें कवि ने मोचीराम के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति की ह

📔 कबीर के दोहे – शब्दकलश Opt -Hindi B.A.I

चित्र
  कबीर के दोहे – शब्दकलश Opt -Hindi B.A.I    १ ) साधु सीप समुद्र के , सतगुरु स्वाती बून्द।    तृषा गई एक बून्द से , क्या ले करो समुन्द।। अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं सच्चे साधु लोग सीप के समान होते हैं । जैसे एक सीप सागर के बीच मे रहते हुए भी सिर्फ स्वाती नक्षत्र में गिरी बूंद को ही अपने अंदर ग्रहण करती है , उसे सागर के पानी से कुछ लेना देना नहीं होता । वैसे ही साधु साधु को सीप मानो , वे भी चारों तरफ फैली माया से आकर्षित नहीं होते औऱ सद्गुरु उनके लिए स्वाती बूंद की तरह होते हैं उनकी प्यास सिर्फ सद्गुरु से ही बुझ सकती है , वे उन्ही से संतुष्ट हो सकते हैं । २ ) गुरु कुम्हार शिष कुंभ है , गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।    अन्तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट॥     अर्थ :  गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है , गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का अनगढ़ टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं , उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। जैसे कुम्भकार घड़ा बनाते वक़्त बाहर से तो चोट मारता है और अंदर से हलके हाथ से उसे सहारा भी देता हैं की कहीं कुम्भ टूट ना जाए , इसी भाँती गुरु भी उसके अवगुण