पहेलवान की ढोलक ~ फणीश्वरनाथ रेणु

 



 पहेलवान की ढोलक

~ फणीश्वरनाथ रेणु

 -: पहलवान की ढोलक लेखक परिचय :- 

जीवन-परिचय-फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी-साहित्य के प्रमुख आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। इनका जन्म मार्च, 1921 को बिहार प्रांत के पूर्णिया वर्तमान में (अररिया) जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। वर्ष 1942 के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में इन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। वर्ष 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने हेतु इन्होंने भरपूर योगदान दिया। वर्ष 1952-53 में ये बीमार हो गए। इनकी साहित्य साधना तथा राष्ट्रीय भावना देखकर सरकार ने इन्हें पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया।

11 अप्रैलसन् 1977 को पटना में इनका देहावसान हुआ। रचनाएँ-हिंदी कथा साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंउपन्यास-मैला आँचलपरती परिकथादीर्घतपाकितने चौराहे आदि। कहानी-तीसरी कसमउफ मारे गए गुलफामपहलवान की ढोलक आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-आंचलिक कथा साहित्य में रेणु जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने इस साहित्य में क्रांति उपस्थित की है। फणीश्वर ने साहित्य के अलावा राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय योगदान दिया। उनका मैला आँचल’ गोदान के बाद दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास ने हिंदी जगत को एक नई दिशा प्रदान की। इसके पश्चात गाँव की भाषण-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को उपन्यासों और कथा साहित्य के केंद्र में ला खड़ा किया।

पहलवान की ढोलक’ कहानी व्यवस्था के बदलने के साथ लोक-कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है। राजा साहब की जगह नए राजकुमार का आकर जम जाना सिर्फ़ व्यक्तिगत सत्ता-परिवर्तन नहींबल्कि जमीनी पुरानी व्यवस्था के पूरी तरह उलट जाने और उस पर सभ्यता के नाम पर एकदम नई व्यवस्था के आरोपित हो जाने का प्रतीक है। यह भारत’ पर इंडिया’ का छा जाना हैजो लुट्टन पहलवान को लोक-कलाकार के आसन से उठाकर पैट-भरने के लिए हाय-तौबा करने वाली नीचता की भूमि पर पटक देती है।

ऐसी स्थिति में गाँव की गरीबी पहलवानी जैसे शौक को क्या पालतीफिर भीपहलवान जीवट ढोल के बोल में अपने आपको न सिर्फ़ जिलाए रखता हैबल्कि भूख व महामारी से दम तोड़ रहे गाँव को मौत से लड़ने की ताकत भी प्रदान करता है। कहानी के अंत में भूख-महामारी की शक्ल में आई मौत की साजिश जब लुट्टन की भरी-पूरी पहलवानी को फटे ढोल की पोल में बदल देते हैं तो इस करुणा/त्रासदी में लुट्टन हमारे सामने कई सवाल छोड़ जाता है। मनुष्यता की साधना और जीवन-सौंदर्य के लिए लोक-कलाओं को प्रासंगिक बनाए रखने हेतु हमारी क्या भूमिका हो सकती हैयह पाठ ऐसे कई प्रश्न छोड़ जाता है।

-: पहलवान की ढोलक - पाठ का सारांश :-

पहलवान की ढोलक’ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित एक श्रेष्ठ कहानी है। फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। प्रस्तुत कहानी उनकी एक आंचलिक कहानी हैजिसमें उन्होंने भारत पर इंडिया के छा जाने की समस्या को प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। यह व्यवस्था बदलने के साथ लोक कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है।

श्यामनगर के समीप का एक गाँव सरदी के मौसम में मलेरिया और हैजे से ग्रस्त था। चारों ओर सन्नाटे से युक्त बाँस-फूस । की झोंपड़ियाँ खड़ी थीं। रात्रि में घना अंधेरा छाया हुआ था। चारों ओर करुण सिसकियों और कराहने की आवाजें गूंज रही थीं।। सियारों और पेचक की भयानक आवाजें इस सन्नाटे को बीच-बीच में अवश्य थोड़ा-सा तोड़ रही थीं। इस भयंकर सन्नाटे में कुत्ते । समूह बाँधकर रो रहे थे। रात्रि भीषणता और सन्नाटे से युक्त थीलेकिन लुट्टन पहलवान की ढोलक इस भीषणता को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इसी पहलवान की ढोलक की आवाज इस भीषण सन्नाटे से युक्त मृत गाँव में संजीवनी शक्ति भरा करती थी।

लुट्टन सिंह के माता-पिता नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे छोड़कर चले गए थे। उसकी बचपन में शादी हो चुकी थीइसलिए विधवा सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। ससुराल में पलते-बढ़ते वह पहलवान बन गया था। एक बार श्यामनगर में एक मेला लगा। मेले के दंगल में लुट्टन सिंह ने एक प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को चुनौती दे डालीजो शेर के बच्चे के नाम से जाना जाता था। श्यामनगर के राजा ने बहुत कहने के बाद ही लुट्टन सिंह को उस पहलवान के साथ लड़ने की आज्ञा दीक्योंकि वह एक बहुत प्रसिद्ध पहलवान था।

लुट्टन सिंह ने ढोलक की धिना-धिनाधिकधिना’, आवाज से प्रेरित होकर चाँद सिंह पहलवान को बड़ी मेहनत के बाद चित कर दिया। चाँद सिंह के हारने के बाद लुट्टन सिंह की जय-जयकार होने लगी और वह लुट्टन सिंह पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे अपने दरबार में रख लिया। अब लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। लुट्टन सिंह पहलवान की पली भी दो पुत्रों को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थी।

लट्टन सिंह अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बनाना चाहता था,इसलिए वह बचपन से ही उन्हें कसरत आदि करवाने लग गया। उसने बेटों को दंगल की संस्कृति का पूरा ज्ञान दिया। लेकिन दुर्भाग्य से Jएक दिन उसके वयोवृद्ध राजा का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात विलायत से नए महाराज आए। राज्य की गद्दी संभालते ही नए राजा साहब ने अनेक परिवर्तन कर दिए।

दंगल का स्थान घोड़ों की रेस ने ले लिया। बेचारे लुट्टन सिंह पहलवान पर कुठाराघात हुआ। वह हतप्रभ रह गया। राजा के इस रवैये को देखकर लुट्टन सिंह अपनी ढोलक कंधे में लटकाकर बच्चों सहित अपने गाँव वापस लौट आया। वह गाँव के एक किनारे पर झोपड़ी में रहता हुआ नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। गाँव के किसान व खेतिहर मजदूर भला क्या कुश्ती सीखते।

अचानक गाँव में अनावृष्टि अनाज की कमीमलेरियाहैजे आदि भयंकर समस्याओं का वज्रपात हुआ। चारों ओर लोग भूखहैजे और मलेरिये से मरने लगे। सारे गाँव में तबाही मच गई। लोग इस त्रासदी से इतना डर गए कि सूर्यास्त होते ही अपनी-अपनी । झोंपडियों में घस जाते। रात्रि की विभीषिका और सन्नाटे को केवल लट्टन सिंह पहलवान की ढोलक की तान ही ललकारकर चुनौती देती थी। यही तान इस भीषण समय में धैर्य प्रदान करती थी। यही तान शक्तिहीन गाँववालों में संजीवनी शक्ति भरने का कार्य करती थी।

पहलवान के दोनों बेटे भी इसी भीषण विभीषिका के शिकार हुए। प्रातः होते ही पहलवान ने अपने दोनों बेटों को निस्तेज पाया। बाद में वह अशांत मन से दोनों को उठाकर नदी में बहा आया। लोग इस बात को सुनकर दंग रह गए। इस असह्य वेदना और त्रासदी से भी पहलवान नहीं टूटा।

रात्रि में फिर पहले की तरह ढोलक बजाता रहाइससे लोगों को सहारा मिलालेकिन चार-पाँच दिन बीतने के पश्चात जब रात्रि में ढोलक की आवाज सुनाई नहीं पड़ीतो प्रात:काल उसके कुछ शिष्यों ने पहलवान की लाश को सियारों द्वारा खाया हुआ पाया। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के अंत में पहलवान भी भूख-महामारी की शक्ल में आई मौत का शिकार बन गया। यह कहानी हमारे समक्ष व्यवस्था की पोल खोलती है। साथ ही व्यवस्था के कारण लोक कलाओं के लुप्त होने की ओर संकेत भी करती है तथा हमारे सामने ऐसे । अनेक प्रश्न पैदा करती है कि यह सब क्यों हो रहा है

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