बस्स ! बहुत हो चुका
- ओमप्रकाश वाल्मीकि
कविता :-
जब भी देखता हूँ मैं
झाड़ू या गंदगी से भरी बाल्टी - कनस्तर
किसी हाथ में
मेरी रगों में
दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हज़ार वर्ष एक साथ
जो फैले हैं इस धरती पर
ठंडे रेतकणों की तरह।
मेरी हथेलियाँ भीग-भीग जाती हैं
पसीने से
आँखों में उतर आता है
इतिहास का स्याहपन
अपनी आत्मघाती कुटिलताओं के साथ।
झाड़ू थामे हाथों की सरसराहट
साफ़ सुनाई पड़ती है भीड़ के बीच
बियाबान जंगल में सनसनाती हवा की तरह।
वे तमाम वर्ष
वृत्ताकार होकर घूमते हैं
करते हैं छलनी लगातार
उँगलियों और हथेलियों को
नस-नस में समा जाता है ठंडा-ताप।
गहरी पथरीली नदी में
असंख्य मूक पीड़ाएँ
कसमसा रही हैं
मुखर होने के लिए रोष से भरी हुईं।
बस्स!
बहुत हो चुका
चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएँगे संतप्त जनों के!
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स्रोत :- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 67)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : ओमप्रकाश वाल्मीकि
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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भावार्थ :- ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित विमर्श के प्रमुख साहित्यिक है ।उन्होंने साहित्य के माध्यम से दलितों पर हो रहे अन्याय अत्याचार का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया है। दलित एक जाति नहीं है बल्कि पिछड़े हुए वर्ग का प्रतीक है। सदियों से हो रहे दलितों के अन्याय अत्याचार का जीवन कवि ने खुद भुगताया है ।सदियों से पीछड़ी हुई जाती ने अनेक वेदनाओं को सहा हुआ है।
आज भी ग्रामीण भाग से लेकर शहरी भागों में भी यह अन्याय अत्याचार पाया जाता है ।आज समाज का हर पिछड़ा हुआ व्यक्ति शिक्षित बनता जा रहा है। आज वह अपने पर किए हुए अन्याय अत्याचार का विरोध करता है ।कवि स्पष्ट शब्दों में दलितों पर हो रहे अन्याय का ॑बस बहुत हो चुका॑ कविता के द्वारा विरोध करते है। भारतीय जीवन में आज भी वर्ण व्यवस्था पाई जाती है ।हर वर्ग के अंतर्गत व्यवस्था बनी हुई है गुलामी करना झाड़ू लगाना कूड़ा करकट इकट्ठा करना यह काम दलितों पर सौंप दिया जाता है ।किंतु आज यह काम यह वर्ग करने के लिए तैयार नहीं है। कवि खुद दलित थे उन्होंने इस जीवन को खुद भुगताया है इसलिए वे आज किसी दलितों के हाथ में झाड़ू आदि देखते हैं तो कवि का रक्त खौल उठता है वे स्पष्ट शब्दों में इसका विरोध करते हैं समाज में निम्न वर्ग पर अन्याय अत्याचार होता है। कवि जब किसी के हाथ में झाड़ू तथा गंदी बाल्टी देखते हैं तो उन्हें बहुत गुस्सा आ जाता है।
समाज में दो प्रकार के वर्ग है एक शोषित और दूसरा शोषक। शोषित वर्ग पर हमेशा अन्याय अत्याचार होता रहता है । समाज की वर्ण व्यवस्था की ओर कवि हमें सचेत करते हैं। गंदे काम करने की ज़िम्मेदारी सिर्फ एक वर्ग की नहीं है। अब शोषित पर होने वाले अत्याचार को वह नहीं सह सकता । इसीलिए कवि कहते हैं बस्स ! अब बहुत हो चुका अन्याय को सहन करना। अब वक्त आ गया है की अपने पर हो रहे अन्याय का विरोध करने की, एकजुट होने की, आवाज करने की कितने हज़ार साल बित चुके किंतु कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।आज भी वह दलित अपने पर हो रहे अन्याय को सहते ठंडे रेतकणो का तरह पडे देखने पर कवि की अपनी हथेलियों पर पसीना आ जाता है गहरी नदी में असम की पीड़ा ए अपना दर्द बताने के लिए कसमसा रही है उनकी व्यथा उनके मन में ही रह जाती है सदियों से भरा संताप उनके रुदय से उम्र पड़ता है ठंडे रेत कानों की तरह पढ़े हुए पत्थर अब अपने ऊपर हो रहे अन्याय अत्याचार को सह नहीं पाते एक संघर्ष उनके मन में उमड़ पड़ता है सदियों से पीड़ित दलित अपने पर हो रहे अन्याय को स्पष्ट शब्दों में रोष के द्वारा व्यक्त करते हैं।निरर्थक पड़े पत्थर अब समाज के काम नहीं आएंगे यह दलित अपना विरोध समाज में प्रकट करते रहेंगे इस प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलितों की व्यथा को पीड़ा को बस बहुत हो चुका कविता के द्वारा स्पष्ट शब्दों में सदियों का संताप काव्य संग्रह के माध्यम से व्यक्त किया है।
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