रहीम के दोहे
रहीम के दोहे
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
‘रहिमन’ मछरी नीर को तऊ न छाँडति छोह॥
धन्य है मीन की अनन्य भावनाऊँ सदा साथ रहने वाला जल मोह छोडकर उससे विलग हो जाता है, फिर भी मछली अपने प्रिय का परित्याग नहीं करती उससे बिछुडकर तडप-तडपकर अपने प्राण दे देती है
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आप फिर जाय।
भरी हुई सराय को देखकर पथिक स्वयं वहां से लौट जाता है । ह्यमन-मन्दिर में जिसने भगवान को बसा लिया, वहां से मोहिनी माया, कहीं ठौर न पाकर, उल्टे पांव लौट जाती है।
‘रहिमन’ जिव्हा बावरी, कहिगी सरग पताल।आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ।।
क्या किया जाय इस पगली जीभ का, जो न जाने क्या-क्या उल्टी-सीधी बातें स्वर्ग और पाताल तक की बक जाती है| खुद तो कहकर मुहँ के अन्दर हो जाती है, और बेचारे सिर को जूतियाँ खानी पडती है |
धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम’ केहि काज।
जेहि रज मुनि-पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज
हाथी नित्य क्यों अपने सिरपर धूल को उछाल-उछालकर रखता है ? जरा पूछो तो उससे उत्तर है:- जिस ह्यश्रीराम के चरणों कीह धूल से गौतम ऋषि की पली अहल्या तर गयी थी, उसे ही गजराज ढूंढता है कि वह कभी तो मिलेगी ।
कितना ही महत्व का काम करो, यदि किसी के आगे हाथ फैलाया, तो ऊँचे-ऊँचे पद स्वतः छोटा हो जायेगा । विष्णु ने बड़े कौशल से राजा बलि के आगे सारी पृथ्वी को मापकर तीन पग बताया, फिर भी उनका नाम बामन ही रहा । (वामन से बन गया बावन अर्थात् बौना ।)
‘रहिमन’ पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरै , मोती, मानुष, चून ॥
अपनी आबरू रखनी चाहिए , बिना आबरू के सब कुछ बेकार है । बिना आब का मोती बेकार, और बिना आबरू का आदमी कौडी काम का भी नहीं, और इसी प्रकार चूने में से पानी यदि जल गया, तो वह बेकार ही है
'रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दु:ख प्रकट करेइ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ॥
आंसू आंखों में ढुलक कर अन्तर की व्यथा प्रकट कर देते हैं। घर से जिसे निकाल बाहर कर दिया, वह घर का भेद दूसरों से क्यों न कह देगा?
'रहिमन’ राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय ।कहा बापुरो भानु है, तप्यो तरैयन खोय
ऐसे ही राज्य की सराहना करनी चाहिए, जो चन्द्रमा के समान सभी को सुख देने वाला हो। वह राज्य किस काम का, जो सूर्य के समान होता है, जिसमें एक भी तारा देखने में नहीं आता। वह अकेला ही अपने-आप तपता रहता है।
सर सूखे पंछी उड़े, और सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु ‘रहीम’ कहँ जाहिं ॥
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकतकुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छे स्वभाव का होता है,उसे बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती। जैसे ज़हरीले साँप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई ज़हरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।
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