पत्थर की बेंच -चन्द्रकान्त देवताले

 पत्थर की बेंच 

~ चन्द्रकान्त देवताले



पत्थर की बेंच
जिस पर रोता हुआ बच्चा
बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है

 

जिस पर एक थका युवक

अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है

जिस पर हाथों से आंखें ढांप
एक रिटायर्ड बूढ़ा भर दोपहरी सो रहा है

जिस पर वे दोनों
ज़िंदगी के सपने बुन रहे हैं

पत्थर की बेंच
जिस पर अंकित है आंसू, थकान
विश्राम और प्रेम की स्मृतियां

इस पत्थर की बेंच के लिए भी
शुरू हो सकता है किसी दिन
हत्याओं का सिलसिला
इसे उखाड़ कर ले जाया
अथवा तोड़ा भी जा सकता है
पता नहीं सबसे पहले कौन आसीन हुआ होगा

 

इस पत्थर की बेंच पर!


 



Questions and Answer


1 पत्थर की बेंच के कवि कौन है ?
चन्द्रकान्त देवताले
2 बच्चा क्या कर रहा है ?
रोता हुआ बच्चा बिस्कुट कुत२ते चुप हो जाता है ।
3 कुचले हुए सपनों को कौन सहला रहा है ?
थका युवक
4 रिटायर्ड बूढ़ा क्या कर रहा है ?
हाथों से आँखें ढाँप सो रहा है ।
5 प्रेमी- प्रेमिका क्या कर रहा है ?
ज़िन्दगी के सपने बुन रहा है।
6 पत्थर की बेंच किसका प्रतीक है?
सार्वजनिक जगहों का
7 पत्थर की बेंच पर कौन-कौन बैठे है ? उनकी संवेदनाएँ क्या क्या है  ?
पत्थर की बेंच पर रोता हुआ बच्चा बिस्कुट कुतरते चुप हो जाता है । थका युवक कुचले हुए सपनों को सहला रहा है। रिटायर्ड बूढ़ा हाथों से आँखें ढाँप सो २हा है । प्रेमी -प्रेमिका ज़िन्दगी के सपने बुन २हा है।
सबों ने पत्थर की बेंच का सहारा लिया - क्यों ?
पत्थर की बेंच पर बैठक२ खुली हवा लगने से सबकी थकान दूर हो जाता है और मन का बोझ भी कम हो जाता है।
कवि की आशंका क्या है ?
कवि की आशंका यह है कि इस पत्थर की बेंच को भी एक दिन  मनुष्य हत्या कर डालेगा । उसे उखाड़कर ले जायेगा या तोड़ डालेगा I
प्रस्तुत कविता का सन्देश क्या है ?
सार्वजनिक जगह सामाजिकता का संगम स्थान है। इसलिए इसका संरक्षण करना चाहिए ।


आस्वादन टिप्पणी


'पत्थर की बेंच ' नामक कविता के कवि चन्द्रकान्त देवताले है । वे वर्तमान समाज के कवि है । प्रस्तुत कविता में कवि यह बताना चाहते है कि मनुष्य सार्वजनिक जगहों का नाश कर रहा है ।
 पार्क में जो पत्थर की बेंच है ,उसपर कई तरह के आदमी आकर बैठते है । एक बच्चा रो रहा है और बिस्कुट कुत२ते चुप हो जाता है । थका युवक अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है ।  दुपहर की धूप से बचकर , एक रिटायर्ड बूढ़ा अपने हाथों से आँखें ढाँपक२ सो रहा है ।
प्रेमी -प्रेमिका अपनी ज़िन्दगी के सपने बुन रहा है ।  इस पत्थर की बेंच पर अनेकों की थकान , आँसू , विश्राम , और प्रेम की स्मृतियाँ अंकित है । 
   इस कविता में कवि अपनी आशंका को व्यक्त क२ते  हुए कहते है कि इस पत्थर की बेंच को भी किसी दिन मनुष्य हत्या कर डालेगा I उसे उखाड़ कर ले जायेगा या तोड़ डालेगा I यह इतना पुराना बेच है कि उसमें कौन पहला बैठा होगा , यह भी हमें पता नहीं ।
  इसमें पत्थर की बेंच सार्वजनिक जगहों का प्रतीक है सार्वजनिक जगह सामाजिकता का संगम स्थान है । इसलिए इसका संरक्षण करना चाहिए ।

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