भगवानदास मोरवाल

 जन्म २३ जनवरी १९६०) नगीना, मेवात में जन्मे भारत के सुप्रसिद्ध कहानी व उपन्यास लेखक हैं। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की। उन्हें पत्रकारिता में डिप्लोमा भी हासिल है। मोरवाल के अन्य प्रकाशित उपन्यास हैं काला पहाड़ (१९९९) एवं बाबल तेरा देस में (२००४)। इसके अलावा उनके चार कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह और कई संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिल्ली हिन्दी अकादमी के सम्मानों के अतिरिक्त मोरवाल को बहुत से अन्य सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। उनके लेखन में मेवात क्षेत्र की ग्रामीण समस्याएं उभर कर सामने आती हैं। उनके पात्र हिन्दू-मुस्लिम सभ्यता के गंगा जमुनी किरदार होते हैं। कंजरों की जीवन शैली पर आधारित उपन्यास रेत को लेकर उन्हें मेवात मोरवाल 

(जन्म २३ जनवरी १९६०) नगीना, मेवात में जन्मे भारत के सुप्रसिद्ध कहानी व उपन्यास लेखक हैं। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की। उन्हें पत्रकारिता में डिप्लोमा भी हासिल है। मोरवाल के अन्य प्रकाशित उपन्यास हैं काला पहाड़ (१९९९) एवं बाबल तेरा देस में (२००४)। इसके अलावा उनके चार कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह और कई संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिल्ली हिन्दी अकादमी के सम्मानों के अतिरिक्त मोरवाल को बहुत से अन्य सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। उनके लेखन में मेवात क्षेत्र की ग्रामीण समस्याएं उभर कर सामने आती हैं। उनके पात्र हिन्दू-मुस्लिम सभ्यता के गंगा जमुनी किरदार होते हैं। कंजरों की जीवन शैली पर आधारित उपन्यास रेत को लेकर उन्हें मेवात में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा, किंतु इसके लिए उन्हें २००९ में यू के कथा सम्मान द्वारा सम्मानित

मोरवाल

लेखक भगवानदास मोरवाल के अनुभव का विशाल संसार उनके लेखन में बखूबी झलकता है। ये अनुभव संभवतः उन्हें अपनी मिट्टी मेवात और भारत सरकार के केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड में काम करने के दौरान मिले। उनका पहला कहानी संग्रह 'सिला हुआ आदमी' साल 1986 में छपा। फिर 'सूर्यास्त से पहले', 'अस्सी मॉडल उर्फ सूबेदार', 'सीढ़ियां, मां और उसका देवता', 'लक्ष्मण-रेखा' और 'दस प्रतिनिधि कहानियां' छपे। इस बीच कविता संग्रह 'दोपहरी चुप है' और बच्चों के लिए 'कलयुगी पंचायत' नामक पुस्तक भी छपी। उन्होंने हिंदी की 'श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं' और 'इक्कीस श्रेष्ठ कहानियां' का संपादन भी किया। हिंदी से स्नातकोत्तर और पत्रकारिता में डिप्लोमा हासिल करने वाले मोरवाल ने कहानियों से शुरुआत की और उपन्यासों से प्रसिद्ध हुए। कंजरों की जीवन शैली पर आधारित उपन्यास ‘रेत’ के छपने के बाद उन्हें मेवात में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा, यह और बात है कि बाद में अपने इसी उपन्यास के लिए उन्हें 2009 में यूके कथा सम्मान द्वारा सम्मानित भी किया गया।

मोरवाल का जन्म हरियाणा के मेवात में 23 जनवरी, 1960 को हुआ था। अपने उपन्यास 'काला पहाड़', 'बाबल तेरा देस में', 'रेत' तथा 'नरक मसीहा' से उन्होंने खूब शोहरत बटोरी। ‘हलाला’ और ‘शकुंतिका’ भी पाठकों द्वारा हाथोंहाथ लिए गए। कई विश्वविद्यालयों में उनकी पुस्तकें पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं, तो कई पर शोध हुए। उनकी कई किताबों के उर्दू सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं। मोरवाल को अब तक 'श्रवण सहाय अवार्ड’, 'जनक विमेहर सिंह सम्मान’, 'हरियाणा साहित्य अकादमी', 'शब्द साधक ज्यूरी सम्मान’,'कथाक्रम सम्मान’, हिंदी अकादम


 दिल्ली का 'साहित्यकार सम्मान’, दो बार 'साहित्यिक कृति सम्मान’, 'राजाजी सम्मान’, 'डॉ अम्बेडकर सम्मान’, भारतीय दलित साहित्य अकादमी व पत्रकारिता के लिए 'प्रभादत्त मेमोरियल अवार्ड’ व 'शोभना अवार्ड’ मिल चुका है। आप 

हिंदी अकादमी दिल्ली एवं हरियाणा साहित्य अकादमी के सदस्य भी रहे 






























































 इस संग्रह को प्रकाशित कराने में किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा. अक्सर हम देखते हैं कि अपनी पहली पुस्तक के लिए कुछ लोग आर्थिक सहयोग के नाम पर प्रकाशक को पैसा देते हैं, कम से कम मैंने तब भी नहीं दिए. ऐसा नहीं है कि यह परंपरा उस समय नहीं थी, यह परंपरा तो तब से है जब से प्रकाशन व्यवसाय शुरू हुआ था. हां, मेरी पहली पुस्तक के साथ एक मजेदार वाकिया यह हुआ कि प्रकाशक ने पुस्तक के फरमे पूरे करने के लिए उन्हें मैं अपनी रचनाओं की जो फाइल दे आया था, उनमें से कहानियों के साथ कुछ लेख भी छाप दिए.  

मेवात और वहां का जीवन आपके लेखन के केंद्र में रहा है. यहां तक कि काला पहाड़ को छपे बीस साल हो गए, वहां के जीवन में तब से अब तक क्या कोई बदलाव आया है? कितना बदला है मेवात?

भगवानदास मोरवाल:  यह सही है कि काला पहाड़ के प्रकाशन का यह बीसवां साल है. 1999 के लगभग अंत में यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन समूह के राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था. यह मेरा पहला उपन्यास था और सच कहूं तो इसी उपन्यास ने मुझे वह लेखकीय स्वीकार्यता दिलाई, जिसका आपने अपने पहले प्रश्न में ज़िक्र किया है. कहने को हम काला पहाड़ को आज से बीस साल पहले का मेवात कह सकते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें सिर्फ बीस वर्ष पहले का मेवात नहीं है, बल्कि एक पूरी सदी का मेवात है. जिसमें उसका सुनहरा अतीत है, तो साथ में मेवात का गौरवशाली इतिहास भी है. 

इसमें मेवात की मिश्रित संस्कृति का पक्का और गाढ़ा रंग देखा जा सकता है तो तेज़ी से इस रंग के फीके पड़ने की पीड़ा भी आप महसूस कर सकते हैं. आपने इस उपन्यास के हवाले से मेवात के जन-जीवन के बदलाव की बात पूछी है. मैं यहां यह कहना चाहता हूं कि इन पिछले दो दशकों में सिर्फ़ मेवात ही नहीं बल्कि हमारे पूरे भारतीय समाज में बदलाव आया है. विशेषकर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के बाद हमारे समाज में आपसी भरोसा एक-दूसरे के प्रति कम हुआ है. एक तरह से मेवात को हम बदलते ग्रामीण भारत के रूप में देख सकते हैं. मैं कह सकता हूं कि धार्मिक कट्टरता सभी धर्म और समुदायों में समान रूप से बढ़ी है.


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